मैं, मैसेज और तज़ीन
- प्रदीप श्रीवास्तव
भाग एक
पिछले करीब डेढ़ बरस कुछ ठीक बीते थे। खाने-पीने रोज की ज़रूरतों की चीजें ज़्यादा आसानी से मिल जा रही थीं। हम दोनों बहनों, भाई की स्कूल की फीस भी आसा0नी से जाने लगी थी। इसके साथ ही एक और बात हो रही थी कि मेरी पढ़ाई अब डिस्टर्ब होने लगी थी। क्योंकि अब मेरा थोड़ा बहुत नहीं कई-कई घंटे, दिन हो या रात फ़ोन पर बातें करते बीतता था। रात चाहे दस बजे हों या ग्यारह-बारह या फिर दो मेरे मोबाइल की घंटी बजती रहती थी। मैं आने वाली इन कॉल्स को चाह कर भी इग्नोर नहीं कर सकती थी। क्योंकि आखिर इन्हीं कॉल्स के कारण ही तो डेढ़ बरस से दिन अच्छे बीतने लगे थे। तो आखिर इनको इग्नोर करके अच्छे बीतते दिनों को खराब क्यों करती और कैसे करती। इसलिए घंटी किसी भी समय बजे मैं उस कॉल को लपक कर रिसीव करती। मेरे इस काम में रुकावट न आए इस गरज से घर के बाकी लोगों से अपने को अलग-थलग कर लिया था। खाना सबसे अलग खाने लगी थी। यहां तक कि बाथरूम में भी मोबाइल अपने से अलग न करती।
मैं इन सब की कीमत भी चुका रही थी। नींद पूरी नहीं होती थी। आंखों में जलन होती रहती थी, सिर में दर्द बराबर बना रहता था। सबसे बड़ी बात यह कि जब फीस के लाले थे तब मेरे पास पढ़ने के लिए ढेर सारा टाइम था। जब फीस आसानी से देने की व्यवस्था हो गई थी तो लिखने-पढ़ने के लिए टाइम नहीं था। बस हर समय बात-बात, घंटी बजते ही बात। तरह-तरह के अंजान लोगों से बात। और बात भी कैसी, जिनका कोई मतलब नहीं। गंदी, फुहड़ता में सनी बातें। सेक्स से शुरू होतीं और सेक्स पर ही खतम होती बातें। ऐसी-ऐसी बातें जो सारे-भाव, सारा मूड एकदम गड़बड़ा देतीं। भ्रमित कर देतीं।
डेढ़ बरस पहले भले ही पैसे की बहुत तंगी थी। खाने, पीने, फीस के लाले थे। मगर तब जीवन में चैन था। इस डेढ़ बरस में मेरी जिंदगी को उलट-पलट देने का काम किया पापा के मोबाइल पर बार-बार आने वाले एक ख़ास तरह के मैसेज ने। पापा वकालत करते हैं। लखनऊ की लोअर कोर्ट में वकालत करते उन्हें बीस साल हो गए हैं। मगर आज भी वह उन्हीं वकीलों की कतार में खड़े हैं जो दिनभर में बस किसी तरह रोटी-दाल का जुगाड़ कर लेते हैं। किसी तरह बच्चों को हाई-स्कूल इंटर तक पढ़ा भी लेते हैं। पापा आज भी शादी में मिली मोटर साइकिल से ही कोर्ट जाते हैं।
जिस दिन पेट्रोल का पैसा नहीं होता उस दिन निशातगंज की सातों गलियों को पैदल ही नाप देने की उनकी आदत पड़ गई है। शाम को भी जैसे-तैसे आते हैं। थक कर एकदम चूर। नौ बजते-बजते एकदम बेसुध हो सो जाते हैं। गनीमत है तो सिर्फ़ इतना कि मकान निजी है। बाबा की मौत के बाद पुश्तैनी मकान के चार हिस्से हुए। तीनों चाचा अपना-अपना हिस्सा बेच कर, और पैसा लगाकर दूसरी जगहों पर बडे़ मकान बना कर रहने लगे। लेकिन पापा तंगहाली के चलते यह नहीं कर सके। मिले हिस्से की मरम्मत कराना ही उनके लिए नया मकान बनाने जैसा था और अब भी है। चौथा हिस्सा जो मिला वह रेलगाड़ी के एक डिब्बे जैसा मात्र पंद्रह फुट चौड़ा और पचास फुट लंबा। आगे पीछे लाइन से तीन कमरे। बीच में एक आंगन जिस पर ऊपर जाल पड़ा है। जर्जर हालत में ऊपर जाने को जीना। उसी के नीचे लैट्रिन, बाथरूम। और एकदम पीछे की तरफ एक रसोई। ऊपर छत पर एक कमरा जिस पर टिन शेड पड़ा है। जो गर्मियों में भट्टी सा तपता है। और जाड़ों में बर्फ की कोठरी बन जाता है।
पापा-अम्मा गर्मियों में एक बीस साल पुराने ऊषा के खड़-खड़ कर चलने वाले टेबिल फ़ैन के सहारे सोते हैं। और जाड़ों की ठिठुरती सर्दियों में एक पुरानी रजाई, एक पुराने से कंबल के सहारे रात बिताते हैं। कंबल जब पुराना हो जाने के करण कई जगह से फट गया था, छेद हो गए थे तो मां ने अपनी पुरानी धोतियों को उस पर चढ़ाकर कथरी की तरह सिल दिया। ऐसा दो-तीन बार वह कर चुकीं हैं जिससे वह काफी भारी हो गया है। मगर ठंड से बचने में मदद ज़रूर करता है।
टिन शेड वाले इस कमरे में बाबा के जमाने का ही मज़बूत और बड़ा तखत, यही बिस्तर और एक पुराना रेडियो जो अकसर खराब रहता, पापा-अम्मा के कमरे का अभिन्न हिस्सा हैं। इसी में पापा की कोर्ट-कचेहरी के सारे पेपर्स, फाइलें भी रहती हैं। जिन्हें हममें से किसी बच्चे को छूने की इज़ाज़त नहीं है। बेहद संतोषी, सीधे-सादे मेरे पापा और अम्मा मानो एक दूसरे के लिए ही बने हैं। हम सब के साथ पापा-अम्मा एक साथ मिलकर खाना खाते थे। मगर मोबाइल पर लगे रहने के चलते मैं डांट-डपट के बावजूद अलग खाने का मौका ढूढ़ती रहती और फिर स्थाई रूप से अकेले ही खाने लगी। पापा नौ बजते और बाकी सब दस बजते-बजते बिस्तर पर पहुंच जाते हैं। मां ऊपर कमरे में जाने से पहले मुख्य दरवाजा चेक करना आज भी नहीं भूलतीं। हम सबका बिस्तर भी ठीक करना उनकी आदत सी है। हम लोग लाख अपने बिस्तर लगा लें, लेकिन उन्हें चेक किए बिना उन्हें चैन नहीं पड़ता। पापा-अम्मा को आज तक हमने अलग सोते या किसी भी बात पर कभी झगड़ते छोड़िए, कभी तेज़ आवाज़ में बोलते भी नहीं सुना।
डेढ़ बरस पहले पापा नौ बजे ऊपर जाते वक्त मोबाइल ऑफ कर देते थे। फिर उसे खोलकर बैट्री निकालकर एक जुगाडू चार्जर में रातभर के लिए लगा देते। मोबाइल का चार्जर काफी समय से खराब हो गया था। लेकिन नया चार्जर लाख कोशिशों के बाद भी तब खरीदना संभव नहीं हो पाया था। सुबह जल्दी उठना, और आधा घंटे योग, ध्यान करना पापा-अम्मा की दिनचर्या में शामिल है। हम लोगों का भी सुबह जल्दी उठना, योग-ध्यान करना ज़रूरी था। यह सब हमारे परिवार की सेहत को बहुत बढ़िया बनाए हुए था बल्कि यह कहें कि अभी भी बनाए हुए हैं ।
मगर मोबाइल की घंटियों ने मुझे इससे भी अलग कर दिया। दिनचर्या बरबाद कर दी तो सेहत बिगड़ने लगी। इसकी नींव उस दिन पड़ी जिस दिन मैंने पापा के मोबाइल में पहली बार मैसेज पढ़ा ‘किसी भी समय बनाए प्यारे दोस्त, वॉयस चैटिंग करें। मस्त बातें करें। मुझे है इंतजार एक ऐसे दोस्त की जिससे मैं दिल की हर बात कर सकूं। करिए दोस्तों से गर्मागर्म चटपटी बातें किसी भी वक़्त।’ मैंने यह मैसेज तब पढ़ा था जब एक दिन मेरी एक फ्रेंड ने कहा था ‘यार जब भी तुमसे बात करने के लिए फ़ोन करती हूं तो वह बंद ही रहता है।’ मेरी वह सहेली देर रात तक जागने, टी.वी. देखने, दोस्तों से बातें करने की आदी है। उसके पास उसका अपना बढ़िया सा मोबाइल है। मेरे पास मोबाइल होने का कोई प्रश्न ही नहीं था। किसी भी समय क्लाइंट से संपर्क बनाए रखने की गरज से पापा बड़ी जोड़-तोड़ करके मोबाइल ले पाए थे। मेरा मन भी लोगों का मोबाइल देखकर मचल उठता था। बाबा आदम के जमाने के टी.वी. पर रोज मोबाइल के ऐड देख-देख कर एकदम दिवानी हो उठती थी। मगर तब तो हमारे लिए सपना था।
उस दिन जब उस सहेली ने ताना मारा तो मैंने पापा-अम्मा के सो जाने के बाद मोबाइल की बैट्री लगा कर उसे ऑन किया था। सोचा शायद उस सहेली की कॉल आ जाए। फिर उत्सुकतावश ही उसका मैसेज बॉक्स खोला जिसमें तमाम मैसेज़ ऐसे थे जिन्हें पापा ने खोला ही न था। मैंने खोला तो उसमें कुछ क्लाइंट्स के थे तो कुछ यही चैटिंग के। उन्हें पढ़ा तो जाने कैसी उत्सुकता जागी कि मैंने दिए गए नंबर पर कॉल कर दिया। छूटते ही उधर से आवाज़ आई ‘हैलो स्वागत है आपका वॉयसचैट सर्विस में, आप जिनसे बातें करना चाहते हैं वह अभी व्यस्त हैं। आप लाइन पर बने रहें हम शीघ्र ही आपको कनेक्ट करेंगे।’ और फिर ऐसा ही हुआ। मिनट भर भी न बीता था कि एक लड़की आई लाईन पर और बड़ा इठलाते हुए बोली ‘हेलो .... कौन बोल रहा है।’ मैंने तुरंत अपना नाम बता दिया ‘तापसी .... आप कौन’, उसने तुरंत उसी तरह इठलाते हुए कहा ‘तापसी मैं नेहा बोल रही हूं। तुम्हारी आवाज़ बहुत अच्छी है।’
उसकी शुरुआती बातचीत से ही मुझे अजीब सा लगा कि यह कैसी दोस्ती न जान न पहचान और सीधे इतनी अंतरंग बातें, मैं कुछ घबरा भी गई तो कहा ‘रखती हूं दिन में बातें करूंगी। बहुत रात हो रही है।’ इस पर वह एकदम बोली ‘नहीं प्लीज तापसी ऐसा नहीं करना। तुमसे बात करके बहुत अच्छा लग रहा है।’
इसके बाद वह तुरंत सेक्स की बातों पर उतर आई। मैं अकेले होती हूं तो ऐसा करती हूं, तुम क्या करती हो। अपना फिगर बताने लगी, मेरा पूछने लगी ऐसी-ऐसी बातें कीं, कि मैं हक्का-बक्का हो गई। शर्म सी महसूस हो रही थी और डर भी रही थी कि कहीं पास ही में सो रहे भाई-बहन जाग न जाएं। मैं उसकी बातों में ऐसा उलझ गई कि फ़ोन काट दूं यह भी न कर पाई। अचानक पंद्रह मिनट बाद लाइन अपने आप ही कट गई तो मेरे जान में जान पड़ी। मगर जैसे ही पता चला कि यह बैलेंस खतम होने के कारण हुआ तो मैं डर गई कि सवेरे पापा को पता चलेगा तो बहुत गुस्सा होंगे। हैरान-परेशान मैंने फिर से फ़ोन खोलकर उसी तरह बैट्री चार्ज होने के लिए लगा दी।
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